बिहार। विधानसभा चुनाव के लिए सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। जहां विपक्षी गठबंधन ने सीट बंटवारे को लेकर बैठकें शुरू की हैं, वहीं सत्तासीन एनडीए में भी अलग-अलग क्षेत्रों में टिकट दिए जाने को लेकर चर्चाओं का दौर जारी है। खबरों की मानें तो जदयू और भाजपा बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने पर बात कर रही हैं, वहीं कुछ सीटें सहयोगी पार्टियों को भी दी जाएंगी। 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू ने भाजपा से ज्यादा विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था। नतीजों में भाजपा ने 75 तो जदयू ने 43 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
भाजपा को अब तक अपना मुख्यमंत्री बनाने का इंतजार?-1952 में जब बिहार में पहली बार चुनाव हुए तो भाजपा के पूर्ववर्ती संगठन भारतीय जनसंघ को एक भी सीट हासिल नहीं हुई। 1962 में पहली बार बिहार में जनसंघ का खाता खुला और उसे तीन सीटें हासिल हुईं। 1967 में जनसंघ 26 सीटों के साथ कांग्रेस और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बाद तीसरे नंबर का दल बना।
भाजपा के समर्थन से पहली बार मुख्यमंत्री बने लालू-1980 आते-आते जनता पार्टी में बिखराव हो गया, भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई। 1980 के चुनाव में भाजपा को 21 सीटें मिलीं। 1985 में भाजपा बिहार में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। 1990 के विधानसभा चुनाव में जनता दल को 324 में से 122 सीटों पर जीत मिलीं। कांग्रेस 71 तो भाजपा 39 सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा के समर्थन से जनता दल की सरकार बनी। लालू प्रसाद यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने। 1995 में भाजपा 41 सीटें जीती। जनता दल ने इस बार 167 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। इस चुनाव में नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस की समता पार्टी ने किस्मत आजमाई। हालांकि, उसे महज 7 सीटें मिलीं।
कैसे साथ आए भाजपा और नीतीश?-1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस की नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सरकार को पीछे करते हुए 161 सीटों पर जीत हासिल की। इस चुनाव में नीतीश कुमार की समता पार्टी को 8 सीटें मिलीं। इनमें से छह सीटें उसे बिहार से ही हासिल हुई थीं। समता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को समर्थन दे दिया। यह सरकार 13 दिन ही चली, लेकिन नीतीश और भाजपा का साथ इसके बाद भी बना रहा। नवंबर 1997 में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार से कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद 1998 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए। इस बार भाजपा और समता पार्टी का साथ बना रहा। जहां भाजपा को 182 सीटें मिलीं, तो वहीं समता पार्टी ने 12 सीटें हासिल कर लीं। इस तरह एनडीए ने समर्थन जुटाते हुए केंद्र में सरकार बना ली। हालांकि, यह सरकार एक साल से कुछ ही ज्यादा समय तक चल पाई थी कि संसद में अप्रैल 1999 को लाए गए एक अविश्वास प्रस्ताव की वजह से अटल सरकार एक वोट से गिर गई। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी नीतीश भाजपा के साथ रहे। हालांकि, इस बार समता पार्टी का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका था और शरद यादव के धड़े वाला जनता दल, रामकृष्ण हेगड़े की लोक शक्ति और नीतीश-जार्ज की समता पार्टी साथ आ चुकी थीं। राम विलास पासवान भी इसका हिस्सा थे। इस तरह 1999 में लोकसभा चुनाव से पहले अस्तित्व में आया जनता दल (यूनाइटेड) यानी जदयू। पार्टी ने 1999 का यह चुनाव एनडीए में रहते हुए लड़ा और बड़ी जीत हासिल की। 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीटें तो 182 पर ही रहीं, लेकिन कांग्रेस को महज 114 सीटें ही मिलीं। वहीं जदयू इस चुनाव में 21 सीटों पर जीता।
2000: पहली बार 7 दिन के मुख्यमंत्री बने नीतीश-बिहार में साल 2000 में विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव पर लगे चारा घोटाले के आरोपों का असर पड़ा। राजद की सीटें घटकर 124 पर आ गईं। वहीं, भाजपा ने 67 सीटें हासिल कीं। भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार ने राज्य स्तर पर समता पार्टी को भी बल दिया और उसे 34 सीटें मिलीं। बिहार में जोड़तोड़ की राजनीति शुरू हुई और समता पार्टी के नीतीश कुमार भाजपा और कुछ अन्य दलों के समर्थन से पहली बार मुख्यमंत्री बन गए। हालांकि, उनके पास कुल-मिलाकर 151 विधायकों का ही समर्थन था, जो कि बहुमत के आंकड़े 163 से कम था।
इसके चलते नीतीश को 7 दिन में ही अपना पद छोड़ना पड़ा। इस बीच लालू ने कांग्रेस और कुछ अन्य दलों से बात करके बहुमत लायक समर्थन जुटा लिया। इस तरह बिहार की कमान एक बार फिर राबड़ी देवी के हाथों में आ गई। हालांकि, इस चुनाव के बाद नीतीश कुमार का बिहार की राजनीति में मजबूत होना तय हो गया। इसमें भाजपा ने भी उनका भरपूर साथ दिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-जदयू ने मिलकर लड़ा। भाजपा को इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से सिर्फ सात सीटें ही कम मिलीं। वहीं जदयू ने इस चुनाव में आठ सीटें हासिल कीं।
फरवरी 2005: पहली बार बड़े भाई की भूमिका में आई जदयू -इस चुनाव में काफी टाल-मटोल के बाद जहां जदयू ने 138 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, वहीं भाजपा 103 सीटों पर लड़ने को तैयार हो गई। हालांकि, इस चुनाव में रामविलास पासवान नीतीश से अलग हो चुके थे। 243 सीटों वाली विधानसभा में राजद 75 सीटों पर आ गई। वहीं, एनडीए 92 सीटें (जदयू- 55 और भाजपा- 37) पाने में कामयाब हुई। हालांकि, किसी को भी अकेले दम पर बहुमत हासिल नहीं हुआ। राम विलास की लोजपा ने इस चुनाव में 29 सीटें जीतने के बावजूद किसी को समर्थन नहीं दिया। सहमति नहीं बनने पर अक्तूबर में फिर चुनाव हुए।
अक्तूबर 2005: और बिहार में शुरू हुआ नीतीश राज-राष्ट्रपति शासन के बाद बिहार में अक्तूबर 2005 में फिर चुनाव कराए गए। एक बार फिर जदयू और भाजपा साथ मिलकर लड़े। इस चुनाव में जदयू ने जिन 139 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें 88 पर जीत दर्ज की। वहीं, भाजपा ने अपना रिकॉर्ड सुधारा और 102 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 55 सीटें हासिल कीं। इस तरह एनडीए गठबंधन ने 143 सीटें हासिल करते हुए बहुमत की सरकार बनाई।
राजद इस चुनाव में 54 सीटें हासिल कर पाया। यहीं से बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दौर शुरू हुआ, जो अब तक जारी है। 2009 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और जदयू साथ ही रहीं। जदयू ने इस चुनाव में 25 सीटों पर चुनाव लड़ा और 20 सीटें हासिल कीं। वहीं भाजपा ने यहां 15 सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिनमें 12 को जीत मिली। हालांकि, भाजपा का बिहार में बेहतरीन प्रदर्शन, देशव्यापी नतीजों से बिल्कुल उलट था। पार्टी को इस चुनाव में सिर्फ 116 सीटें ही मिलीं।
2010: नीतीश की आंधी, एनडीए 200 पार-2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा और जदयू का साथ बना रहा। इस चुनाव में एनडीए ने एकतरफा नतीजों में बिहार की 243 विधानसभा सीटों में 206 सीटें हासिल कीं। इनमें जदयू को 115 और भाजपा को 91 सीटें मिलीं। इस तरह नीतीश का एक बार फिर एनडीए की तरफ से मुख्यमंत्री बनना तय हुआ। इस बीच 2013 में भाजपा ने लोकसभा चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। इससे खफा नीतीश एनडीए से अलग हो गए। 2014 में 40 लोकसभा सीटों वाले बिहार में एनडीए में मुख्य साझेदार के तौर पर रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोकजनशक्ति पार्टी (लोजपा) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) थी। भाजपा ने 30, लोजपा ने 7 और रालोसपा ने 3 सीटों पर चुनाव लड़ा। इनमें से 31 पर एनडीए गठबंधन को जीत मिली। इनमें भाजपा 22, लोजपा 6 और रालोसपा 3 सीटें हासिल करने में सफल रही। दूसरी तरफ जनता दल यूनाइटेड अकेले ही मैदान में उतरा। उसे महज दो सीटें मिलीं।
2015: एनडीए से अलग हुए नीतीश -2015 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव और नीतीश कुमार 20 साल बाद साथ आए। जदयू, राजद और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरा और उसे 80 सीटें हासिल हुईं। वहीं, जदयू 71 सीटें पाने में सफल रहा। महागठबंधन को कुल 178 सीटें हासिल हुईं। वहीं, लोजपा, रालोसपा और हिंदुस्तानी आवामी मोर्चा (नीतीश से अलग हुए जदयू के धड़े) के साथ लड़ते हुए भाजपा महज 53 सीट पर सिमट गई और एनडीए को कुल मिलाकर 58 सीटें ही मिल पाईं।
दो साल बाद 2017 में नीतीश कुमार ने फिर पलटी मारी और राजद का साथ छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में इसका असर भी दिखा और एनडीए में भाजपा, जदयू और लोजपा के बीच सीटों का बंटवारा हुआ। इस गठबंधन ने 40 में से 39 सीटें हासिल कर लीं। वहीं, महागठबंधन को सिर्फ एक सीट मिली, जो कि कांग्रेस के पास आई।
2020: नीतीश को भारी पड़ी गठबंधन बदलने की राजनीति-2020 का विधानसभा चुनाव अपने आप में कई मायनों में खास रहा। सत्ताधारी एनडीए 125 सीट हासिल करने में सफल रहा। वहीं, महागठबंधन 110 सीटों पर पहुंच गया। महागठबंधन में चुनाव लड़ रहा राजद इस चुनाव में 75 सीट के साथ सबसे बड़ा दल बना। दूसरी तरफ भाजपा 110 सीटों पर चुनाव लड़कर 74 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। जदयू ने यहां 115 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज 43 सीटों पर सिमट गया।
इसके बाद भी नीतीश एक बार फिर से मुख्यमंत्री बने। हालांकि, उनका पाला बदलने का सिलसिला इस कार्यकाल में भी जारी रहा। 2022 में उनकी भाजपा के साथ तल्खी हुई तो वे राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का हिस्सा बन गए और सीएम भी बने रहे। वहीं, 2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर नीतीश एनडीए में शामिल हो गए। 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए में कुल पांच पार्टियां थीं। इनमें भाजपा ने सबसे ज्यादा 17 सीट, जदयू ने 16, लोजपा (रामविलास) ने 5 सीटें, हम और राष्ट्रीय लोक मोर्चा ने 1-1 सीट पर चुनाव लड़ा। एनडीए को कुल-मिलाकर 40 में से 30 सीटें मिलीं। जहां भाजपा और जदयू 12-12 सीटें जीतीं, वहीं लोजपा को 5 सीटें मिलीं। हम भी एक सीट जीतने में कामयाब रहा।